जय गौर हरि
श्रीमद्भागवत महापुराण यज्ञ
परमाराध्य गुरुदेव श्री अतुल कृष्ण गोस्वामी महाराजश्री के वचनामृत
ज्यों की त्यों....
मेरे गुरुदेव प्रभु कहते हैं उद्धव जी गए। कहीं उनको कोई खिड़की मोखा नहीं मिला। एक छोटा सा मोखा में झांककर देखा तो योगेश्वरेवर कृष्ण।
महलों में जहाँ कैसी कैसी भुवन सुन्दरी, रूपवती, यौवनवती, गुणवती, समर्पिता प्राणा:। लेकिन छोटा सा उत्तरीय पहने हुए श्रीकृष्ण योग समाधि में बैठे हुए थे।
उद्धव थर थर काँप रहे हैं। इतने बड़े राजेश्वर। शील पुरुष। उद्धव की आँखों से आँसू बह रहे थे। गए- रुक्मिणी जी! पता लगा लिया, तुम्हारे पति कहाँ रहते हैं! सत्यभामाजी! चलो।”
सत्यभामा जी तो लाल पीली थीं। "जिसके पास देखूँगी, उसे मार डालूँगी।" ऐसी स्त्री थी। गए, बोले- "उतारो कपड़े सब, कंगन अंगन उतारो सब। छुन छुन छुन नूपुर उतारो, नहीं तो पता लग जाएगा।"
१६ हजार मटकती छलकती, बजाती चलेंगी धीरे धीरे। बोले क्यू लगाओ। सब महारानी और द्वारिका के बड़े बड़े ऋषिगण खड़े हो गए।जाती थीं तन करके और जब निकलतीं थीं तो अश्रुधारा।
हमारा इतना बड़ा सौभाग्य, हमारा रूप यौवन, कान्ति, यह विलास और यह राज्यप्रासाद योगेश्वर पुरुष को बाँध नहीं पाए।
ठीक सुबह हुआ। श्रीकृष्ण निकले "उद्धव! तुमने मेरे इस भजन स्थान को इस प्रकार परिजन कोलाहल से युक्त कर दिया। अब मैं द्वारिका में नहीं रहूँगा। समाधि और तपस्या में मुझे विघ्न देते हो। अब मैं निरन्तर लोकसेवा में रहूँगा।" यह कहकर भगवान् हस्तिनापुर चले गए।
क्रमशः
परमाराध्य गुरुदेव श्री अतुल कृष्ण गोस्वामी जी महाराज
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